हलाल सर्टिफिकेट पर मचा घमासान: धार्मिक मान्यता या समानांतर आर्थिक तंत्र?

देशभर में इन दिनों “हलाल सर्टिफिकेट” को लेकर जोरदार बहस चल रही है। एक ओर इसे धार्मिक स्वतंत्रता और उपभोक्ता की पसंद से जोड़कर देखा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग इसे एक समानांतर आर्थिक व्यवस्था मानते हैं। सवाल उठता है — आखिर इस सर्टिफिकेट की ज़रूरत कितनी है और इसका नियंत्रण किसके हाथों में होना चाहिए?
🔹 क्या है हलाल सर्टिफिकेट?
“हलाल” शब्द अरबी भाषा का है, जिसका अर्थ है अनुमत या वैध। इस्लामी शरीयत के अनुसार जिन चीज़ों को खाना या इस्तेमाल करना जायज़ है, उन्हें हलाल कहा जाता है।
हलाल सर्टिफिकेट इसी अनुमति की पुष्टि करता है — यह प्रमाणपत्र बताता है कि किसी उत्पाद में ऐसे तत्व मौजूद नहीं हैं जो इस्लाम में वर्जित हैं, जैसे सूअर का मांस या शराब।
पहले यह प्रक्रिया केवल मांस उत्पादों तक सीमित थी, लेकिन अब इसका दायरा बेहद विस्तृत हो चुका है —
सीमेंट, ईंट, छड़, तेल, बिस्किट, दूध, दवाइयाँ, कॉस्मेटिक उत्पाद और यहाँ तक कि पानी की बोतल तक में अब हलाल मार्क देखा जा सकता है।
यही वजह है कि अब यह मुद्दा केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आर्थिक और राजनीतिक चर्चा का विषय बन गया है।
🔹 व्यापारिक दृष्टिकोण से महत्व
भारत से खाड़ी और मुस्लिम देशों को निर्यात होने वाले उत्पादों के लिए हलाल सर्टिफिकेट बेहद अहम माना जाता है।
कंपनियों का कहना है कि यह प्रमाणपत्र विदेशी व्यापार के लिए “पासपोर्ट” की तरह काम करता है।
इसके बिना कई इस्लामिक देशों में उत्पादों का निर्यात कठिन हो जाता है।
हालाँकि, देश के भीतर इसके उपयोग को लेकर मतभेद हैं।
कुछ विशेषज्ञों का मत है कि घरेलू बाज़ार में इसे अनिवार्य बनाना आवश्यक नहीं है, जबकि कुछ लोग इसे धार्मिक समुदाय की वैध उपभोक्ता प्राथमिकता मानते हैं।
🔹 विवाद की जड़
विवाद का सबसे बड़ा कारण यह है कि हलाल सर्टिफिकेट जारी करने का अधिकार निजी संस्थाओं के पास है, जो इसके बदले में शुल्क वसूलती हैं।
आलोचकों का कहना है कि इस प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी है और यह धीरे-धीरे एक आर्थिक नेटवर्क में तब्दील हो चुका है।
वहीं, मुस्लिम संगठनों का तर्क है कि यह केवल धार्मिक आस्था पर आधारित प्रमाणन है, जिसका उद्देश्य किसी अन्य धर्म या व्यक्ति को नुकसान पहुँचाना नहीं है।
अब कई हिंदू संगठनों ने सवाल उठाना शुरू कर दिया है कि क्या उन्हें भी अपने धार्मिक दृष्टिकोण से अलग प्रमाणन प्रणाली विकसित करनी चाहिए?
🔹 सरकार की भूमिका और नीतिगत पहल
खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने स्पष्ट किया है कि वह न तो हलाल और न ही झटका सर्टिफिकेट जारी करता है।
वर्तमान में यह कार्य निजी संगठनों द्वारा किया जा रहा है।
जानकारी के अनुसार, देश में चार प्रमुख मुस्लिम संस्थाएँ यह सर्टिफिकेट जारी करती हैं और इससे हर साल हजारों करोड़ रुपए का कारोबार होता है।
सरकार अब इस विषय पर विचार कर रही है कि सर्टिफिकेशन की प्रक्रिया को कानूनी दायरे में लाया जाए, ताकि पारदर्शिता बनी रहे और किसी भी प्रकार का आर्थिक या धार्मिक शोषण न हो।
🔹 धार्मिक और सामाजिक प्रभाव
हलाल सर्टिफिकेट को लेकर समाज में दो राय हैं —
एक पक्ष इसे धार्मिक स्वतंत्रता से जुड़ा अधिकार मानता है, जबकि दूसरा पक्ष इसे धार्मिक आधार पर विभाजन और फंडिंग नेटवर्क से जोड़कर देखता है।
कई संगठनों का कहना है कि इस प्रमाणपत्र के नाम पर बड़ी आर्थिक साजिश चल रही है और इससे जुटाई जा रही राशि का दुरुपयोग होने की आशंका जताई जा रही है।
कुछ सूत्रों के अनुसार, सालाना आठ लाख करोड़ रुपए तक का कारोबार इस सर्टिफिकेट के ज़रिए हो रहा है।
अब सवाल यह है कि सरकारी एजेंसियाँ इस पूरी प्रक्रिया की जाँच कब और कैसे करेंगी?
🔹 कितने समय के लिए मान्य होता है सर्टिफिकेट
सर्टिफिकेशन की प्रक्रिया में उत्पादों के नमूनों को लैब में जांचा जाता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे इस्लामिक मानकों के अनुरूप हैं।
सभी मानक पूरे होने पर हलाल सर्टिफिकेट जारी किया जाता है, जिसकी वैधता 1 से 3 वर्ष तक होती है।
साथ ही, समय-समय पर संबंधित उत्पाद का री-इंस्पेक्शन (पुनः निरीक्षण) भी किया जाता है।




