युवावस्था से ही करें ईश्वर की आराधना, बुढ़ापे में बनेगी संबल: जगद्गुरु शंकराचार्य अनन्तानन्द सरस्वती

काशी के राजगुरु मठ पीठाधीश्वर, अनन्त श्री विभूषित जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी अनन्तानन्द सरस्वती ने कहा कि ईश्वर ही शाश्वत हैं और ईश्वरीय आराधना जीवन का अभिन्न अंग होना चाहिए।
उन्होंने युवाओं को संबोधित करते हुए कहा कि युवा अवस्था में जब इंद्रियां प्रबल होती हैं, सपने ऊँचे होते हैं और उमंगें चरम पर होती हैं, तब ईश्वर साधना अक्सर नीरस प्रतीत होती है। लेकिन जैसे-जैसे उम्र ढलती है और इंद्रियों की शक्ति क्षीण होने लगती है, वैसे-वैसे सांसारिक संबंध टूटने-बिखरने लगते हैं।
शंकराचार्य जी ने कहा, “बुढ़ापे में जब कर्मेंद्रियां कमजोर हो जाती हैं, तब भी ज्ञानेंद्रियां मन को आत्मिक सुख देती हैं। यदि युवावस्था से ही साधना और जप-ध्यान का अभ्यास किया जाए, तो बुढ़ापे में वही साधना सच्चा सुख प्रदान करती है।”
उन्होंने समझाया कि प्रतिदिन चाहे लाभ मिले या न मिले, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सुख का अनुभव हो या न हो, ईश्वर को कुछ समय अवश्य देना चाहिए। क्योंकि जब संबंध, प्रियजन और सांसारिक सुख साथ छोड़ देते हैं, तब वही आराधना मन को स्थिरता और शांति देती है।
अंत में उन्होंने कहा, “शरीर शिथिल हो सकता है, लेकिन मन चलता रहता है। यदि उस मन को युवावस्था से ही ईश्वर की आराधना में लगाएँगे, तो दुख और वियोग कभी छू भी नहीं पाएंगे।”
यह संदेश शंकराचार्य अनन्तानन्द सरस्वती ने राजगुरु मठ, काशी से दिया।