सृष्टि की संरचना के समय ब्रह्मा ने जलचर प्राणी उत्पन्न किए और उनसे कहा, ‘जल, सृष्टि का सबसे उपयोगी तत्व है। इसकी पूजा और रक्षा, दोनों आवश्यक हैं। इसकी रक्षा करने वाले प्राणी ‘रक्ष’ तथा जल का यक्षण (पूजन) करने वाले प्राणी ‘यक्ष’ कहलाएंगे।’ इस तरह रक्ष (राक्षस) एवं यक्ष जातियां अस्तित्व में आईं।
राक्षस जाति में हेति और प्रहेति नाम के दो भाई हुए। कुछ समय बाद प्रहेति ने संन्यास ले लिया, तो राक्षसों के नेतृत्व का भार हेति पर आ गया। हेति ने काल की बहन, भया से विवाह किया। उनका एक पुत्र हुआ–विद्युत्केश। उसका विवाह संध्या की पुत्री सालकटंकटा से हुआ।
सालकटंकटा कामी स्वभाव की थी और सदैव पति के साथ रति-क्रीड़ा में मग्न रहती थी। सालकटंकटा जब गर्भवती हुई, तो उसे चिंता सताने लगी कि संतान होने के बाद वह विद्युत्केश के साथ प्रेमालाप कैसे करेगी। कुछ दिन बाद सालकटंकटा ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिसे देखकर विद्युत्केश तो प्रसन्न हुआ, किंतु सालकटंकटा को अपना ही पुत्र प्रेमालाप में बाधा लगने लगा। आखिर एक दिन उसने खीजकर कहा, ‘मैं इसकी देखभाल नहीं कर सकती…मैं इसे त्याग रही हूं।’
विद्युत्केश ने पत्नी को बहुत समझाया, लेकिन वह नहीं मानी।
आखिर, सालकटंकटा के कहने पर विद्युत्केश ने अपने नवजात पुत्र को एक पर्वत-शिखर पर मरने के लिए छोड़ दिया। वह बालक भूख-प्यास से बिलखता रहा। संयोग से, शिव और पार्वती कहीं जा रहे थे। उन्होंने शिशु के रोने का स्वर सुना, तो तुरंत उसके पास पहुंच गए। बालक को ऐसी करुण दशा में देखकर माता पार्वती का हृदय पसीज गया।
‘प्रभु, यह बालक कौन है?’ पार्वती ने महादेव से पूछा।
शिव ने पार्वती को बालक और उसके माता-पिता के विषय में बताया। पार्वती ने क्रोध में राक्षस जाति को शाप दे दिया : ‘मेरा शाप है कि राक्षस कुल में शिशु जन्म लेते ही तत्काल वयस्क हो जाएंगे!’
. शिव-पार्वती ने शिशु के पालन-पोषण का दायित्व अपने ऊपर ले लिया। पार्वती ने उसके सुंदर केश देखकर उसका नाम 'सुकेश' रख दिया।
सुकेश, महादेव और पार्वती के संरक्षण में अत्यंत बलशाली और ज्ञानवान बन गया। एक दिन पार्वती और शिव ने सुकेश को बुलाया और कहा, ‘पुत्र, तुम्हारे पिता विद्युत्केश के दुर्बल नेतृत्व में राक्षसों की प्रतिष्ठा कम हुई है। तुम अब बड़े हो गए हो। इसलिए राक्षसों का नेतृत्व करो और वंश के गौरव को पुनर्स्थापित करो।’
सुकेश ने तुरंत राक्षसों को संगठित करने का कार्य आरंभ कर दिया। उसके नेतृत्व में राक्षस फिर से साधन-संपन्न एवं शक्तिशाली हो गए और उनकी खोई हुई प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित हो गई। फिर सुकेश ने देववती नाम की गंधर्व कन्या से विवाह किया। देववती से तीन पराक्रमी पुत्र हुए-माल्यवान, सुमाली और माली। तीनों बहुत बलवान थे।
. तीनों भाई भयंकर तप करके ब्रह्मा से शक्तियां अर्जित कर अत्यंत शक्तिशाली हो गए। उन्होंने देवताओं तक पर नियंत्रण पा लिया।
एक दिन तीनों भाई, देवशिल्पी विश्वकर्मा से बोले, ‘हम राक्षसों के लिए एक भव्य नगरी का निर्माण कराना चाहते हैं, जो ऐसे स्थान पर हो, जहां कोई शत्रु न पहुंच सके।’
विश्वकर्मा ने विचार करके कहा, ‘दक्षिणी समुद्र के तट से एक सौ योजन की दूरी पर त्रिकूट नामक एक पर्वत है। वह इतना ऊंचा है कि पक्षी भी उड़कर वहां तक नहीं पहुंच सकते। वह स्थान दुर्जेय है। मैंने उस शिखर पर देवराज इंद्र के लिए अद्भुत और विशाल स्वर्ण नगरी का निर्माण किया था। परंतु इंद्र को पसंद नहीं आई। इसलिए वह स्वर्ण नगरी वीरान पड़ी है। आप चाहें, तो वहां रह सकते हैं।’
‘उस नगरी का क्या नाम है?’ माल्यवान ने पूछा।
‘लंका!’ विश्वकर्मा ने उत्तर दिया।
इस तरह इंद्र के लिए बनाई गई लंका, राक्षसों की हो गई।