
छत्तीसगढ़ उजाला
*सियासत*
रायपुर। छत्तीसगढ़ की सियासी आबोहवा में बदलाव की तेज होती विपक्षी कोशिशों के जवाब में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पहले से ज्यादा आक्रामक राजनीति करते नजर आ रहे हैं। राजनीति में आक्रामकता भी सुरक्षा का अस्त्र होता है। देश की राजनीति में जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्ष पर अकेले भारी पड़ने की बात करते हैं, ठीक उसी तर्ज पर यहां मुख्यमंत्री भूपेश बघेल भी भारी पड़ने की बात करते हैं। भाजपा अब हाथ धोकर पीछे पड़ गई है। चुनाव पास आ गया है तो भाजपा के संघर्ष में और तेजी आएगी ही। उसके साथ केंद्र की ताकत है। पिछले चुनाव में भी भाजपा के साथ केंद्र की ताकत थी लेकिन भाजपा का कार्यकर्ता ठंडा पड़ गया था। छत्तीसगढ़ की जनता भी 15 साल में ऊब गई थी। सोचा, चलो कुछ नया करते हैं। चुन लिया कांग्रेस को। बिना संकोच इस तथ्य को स्वीकार किया जा सकता है कि जनता ने भाजपा की रमन सरकार को ठुकराकर कांग्रेस को चुना था। वैसे ही जैसे जैसे 2003 में कांग्रेस की जोगी सरकार को ठुकराकर भाजपा को चुना था। तब कांग्रेस का चेहरा जोगी थे। कैसे थे, इसका अंदाजा कांग्रेस को है। क्योंकि कांग्रेस ने डेढ़ दशक का राजनीतिक वनवास भोगा। तब उस चुनाव में विपक्ष का चेहरा सामने नहीं था। वैसे ही, जैसे 2018 में नहीं था।
अब भूपेश बघेल का चेहरा सामने है। विपक्ष संयुक्त नेतृत्व में चुनाव लड़ने के संकेत दे रहा है। बघेल के सीधे निशाने पर पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह हैं। वे प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण साव की अपेक्षा डॉ. रमन पर ज्यादा हमलावर हैं। इसके पीछे कई राजनीतिक कारण हैं। एक तो अरुण साव के खिलाफ बोलने के लिए मुख्यमंत्री के पास ज्यादा कुछ है नहीं। डॉ. रमन 15 साल मुख्यमंत्री रहे हैं तो उन पर दोष लगाकर कांग्रेस अपने चार साल का बचाव कर रही है। वह सोचती है कि जनता 15 साल का हिसाब 5 साल में नहीं करेगी। वैसे जनता का मापदंड जनता ही तय करती है। भूपेश बघेल की सरकार के काम के आधार पर जनता तय करेगी कि बरकरार रखना चाहिए या किराएदार से मकान खाली करा दिया जाए। सत्ता किराए का मकान होती है और मकान मालिक जनता है। 5 साल का एग्रीमेंट है। संबंध संतोषजनक हैं तो टिके रहो। अन्यथा मकान से बेदखल। अब यह भूपेश बघेल को देखना है कि मकान मालिक कितना खुश है। एक बात और, वह यह कि किराएदार कितना भी अच्छा क्यों न हो, उसके परिवार में कलह होती हो, शरारती बच्चे मकान की दीवारों को खरोंच रहे हों तो मकान मालिक भला कब तक चुप रह सकता है। इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। वैसे मुख्यमंत्री भूपेश बघेल राजनीति के सिद्ध योद्धा हैं। कब, कहां, कैसे, क्या करना है, वे सब जानते हैं। सारे कलपुर्जे दुरुस्त करने में लगे हुए हैं। विपक्ष सरकार पर एक हमला करे तो उस पर दस तरह से जवाबी हमला हो रहा है।
मुख्यमंत्री द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री को राडार पर लेने के पीछे भी तगड़ी राजनीतिक सोच है। अभी कई भाजपा नेताओं को राज्यपाल बनाये जाने के प्रसंग पर वे पूर्व मुख्यमंत्री पर कटाक्ष करते हुए कह रहे हैं कि इन्हें कोई चेहरा घोषित नहीं कर रहा। दूसरी तरफ राज्यपाल बनाकर भी नहीं भेज रहे। रमेश बैस को झारखंड से महाराष्ट्र भेज कर प्रमोशन मिल गया। इनको तो लॉलीपॉप तक नहीं मिला। अब यह समझ में नहीं आता कि रमन सिंह को लॉलीपॉप मिले न मिले, भूपेश बघेल को क्या तकलीफ है। दरअसल तकलीफ कुछ भी नहीं है। वह सारा फोकस उन पर इसलिए कर रहे हैं कि 15 साल के कामकाज को सामने रखकर 5 साल पर अपना बचाव करना है। इधर भूपेश बघेल पूर्व मुख्यमंत्री का वजन तौल रहे हैं तो जवाब में भाजपा मुख्यमंत्री का कद नाप रही है और सिमटता हुआ बता रही है। प्रदेश भाजपा महामंत्री विजय शर्मा कह रहे हैं कि कांग्रेस में प्रदेश प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष बनाम भूपेश बघेल संग्राम चल रहा है। इस शह मात के खेल में कांग्रेस बेपरदा हो गई है। भूपेश बघेल का कद सिमट गया है।बघेल ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष मरकाम के भरोसेमंद संगठन महामंत्री अमरजीत चावला को नोटिस जारी करवाया तो जवाब में प्रदेश कांग्रेस प्रभारी कुमारी शैलजा ने अपने विश्वस्त विजय जांगिड़ को छत्तीसगढ़ में सह प्रभारी नियुक्त करवा लिया। कांग्रेस में कई सारे गुट बन गए हैं। सत्ता के भीतर गुटबाजी। संगठन में गुटबाजी। सत्ता और संगठन में गुटीय संघर्ष। कांग्रेस के सत्ता संगठन में अजब गजब सर्कस चल रहा है। संगठन को बचाये रखना जरूरी है, यह भी कांग्रेस को अहसास हुआ है, इसलिए भूपेश बघेल की चौधराहट संकट में पड़ गई है। वैसे अब यहां एक बात यह भी है कि डॉ. रमन का भाजपा में वजन आज भी पहले जैसा ही है, उसकी नजीर यह है कि वे छत्तीसगढ़ में रहना चाहते हैं तो उनकी इच्छा का भाजपा ने सम्मान किया है। उन पर कोई दबाव नहीं है। रही बात चुनावी चेहरे की, तो गोरा रंग दो दिन में ढल भी जाता है।